उत्तर मीमांसा के अध्याय 2 में परब्रम्ह के मुख्य लक्षणों पर विचार करते हुए व्याख्या किया गया है।
।। 2 जन्माधिकरणम 2।।
जन्माद्यस्य यतः।। 1 . 1 . 2।। जन्मादि =जन्म आदि (उत्पत्ति,स्थिति और प्रलय )
अस्य =इन जगत का ; यतः =जिससे होता है ,वही ब्रम्ह है।
उदाहरणार्थ -तैति 3,1,3,6 ;हनुमानदास षटशास्त्री; शास्त्राथारदि से ''निश्चय ही ये सब प्रत्यक्ष दिखने वाले प्राणी जिससे उत्पन्न होते है और उत्पन्न होकर जिसके सहारे जीवित रहते है तथा अन्त में इस लोक से प्रयाण करते हुए ,जिसमे प्रवेश करते है ,उसको तत्व से जानने की इच्छा करे;क्योकि वही ब्रम्ह है ''। वह ब्रम्ह कहाँ पर स्थित है , इस पर यह श्रुति कहती है,कि ''आनंद ही ब्रम्ह है ,यह आनन्दमय परमात्मा ही अन्नमय आदि में सबका अन्तरात्मा है ,वे सब ब्रम्ह के स्थुलरूप है। इस कारण अन्नादि भोगों को योगरूप से ग्रहण से ब्रम्हबुद्धि होती है ,इसमें ब्रम्ह के आंशिक लक्षण होते हैं। सर्वांश से ब्रम्ह के लक्षण आनन्द में ही घटते है ,समस्त प्राणी 'आनन्द सवरूप ब्रम्ह ' से ही श्रृष्टि के आरंभ में उत्पन्न होते हैं। उस ब्रम्हानन्द के कणमात्र को पाकर सब प्राणी जी रहे हैं। कोई भी आनन्द के बिना जीवित रहना नहीं चाहता और प्रलयकाल में समस्त प्राणियों से भरा हुआ ब्रह्म्हांड उन्ही में प्रविष्ट (विलीन)होता है''। अर्थात आनंदस्वरूप परमात्मा ही सबके आधार है। ''संशय =ब्रम्ह का कोई लक्षण प्रसिद्ध है या नहीं ;पूर्वपक्ष =संसारादि जगत का जिससे जन्मादि (उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय )और ब्रम्हनिष्ठ सत्य आदि प्रसिद्ध नहीं है। सिद्धांत =जगत कार्य से सिद्ध कारणतत्व रूप धर्म ,ब्रम्ह में 'लक्ष्य 'स्वरूप होता हुआ ब्रम्ह का 'लक्षण 'है क्योकि लक्षण ब्रम्ह में कल्पित होने पर उस लक्षण में ,ब्रम्ह से भिन्न सत्ता नहीं होती,वैसे कारणतत्व की भिन्न सत्ता नहीं है। जैसे माला में मिथ्याभाषित सर्प ,मालारूप ही होता है ,उस सर्प की भिन्न सत्ता नहीं होती। वैसे ही कारणतत्व की भिन्न -भिन्न सत्ता नहीं है ,इससे 'लक्ष्य 'ब्रम्ह रूप होता हुआ 'लक्षण 'ब्रम्ह है। अर्थात ब्रम्ह के 'स्वरूप' को लक्षण के रूप में बताया जाता है। सिद्धि =लौकिक 'प्रकृष्टत्व प्रकाशश्चन्द्र;इत्यादि लक्षणों में ,जैसे चन्द्रनिष्ठत्व रूप से प्रथम (जन्मादि और ब्रम्हनिष्ठ सत्य )अप्रसिद्ध भी ,प्रकृष्टत्व प्रकाशतत्वादि अनेक धर्म एक चन्द्र का बोध कराते है। वैसे ही कलिपितभेद युक्त ब्रम्हनिष्ठ सत्य से एक अखण्डब्रम्ह का लक्षणरूप से बोध होता है। भाव =माला का सर्प मिथ्या निश्चित होने पर ही माला का बोध होता है ;वैसे ही कारणतत्व भी ब्रम्ह का लक्षण है '। 'जन्मादि'अर्थात ब्रम्ह से इस जगत की उतपत्ति ,स्थिति और प्रलय होता है तथा 'सर्व खल्विदम ब्रम्हः 'अर्थात यह सम्पूर्णजगत ब्रम्ह है। यही श्रुतियों में ब्रम्ह के लिए ये प्रसिद्ध -प्रसिद्ध लक्षण माने गये है।
संबंध -ब्रम्हजिज्ञासान्तर्गत जो विषय है,उस ब्रम्ह को सर्वप्रथम किन -किन लक्षणों से जाना जाय,उसके लिए जगत का जिससे 'जन्मादि 'होता है ,उसे बताया जाता है।
पूर्वसूत्रसारांश-दुःखों से निर्वत्ति और समता,आनन्द तथा मोक्ष की प्राप्ति के लिए ब्र्म्हात्मयोग होना आवश्यक है ;जिसके लिए ब्रम्हजिज्ञासु होना चाहिए।
विचारार्थ -परब्रम्ह के मुख्य लक्षणों के विचार को आरम्भ करते हैं।
भावार्थ - जगत के 'जन्मादि'का मूलकारण ही ,ब्रम्ह है;अर्थात जो इस जगत को 'उतप्न्न 'करता है जो इस जगत को स्थित रखकर उसका 'पालन 'करता है और समय -समय पर इस जगत को 'प्रलय के द्वारा अपने में लय'करता है ,वही ब्रम्ह है। इस प्रकार से ब्रम्ह का इस सूत्र में उत्पत्ति ,स्थिति और प्रलय के रूप में उसका मुख्य लक्षण ज्ञात होता है। आगे के सूत्रक्रम में क्रमशः और भी ब्रम्ह के मुख्य लक्षणों को बताया जायेगा।