उत्तर मीमांसा। ....... ।। 4 समन्वयाधिकरणम 4।।

ततु समन्वयात।। 1.1. 4।। तत =वह जगत कारण भूत ब्रम्ह ;तु =तथा; समन्वयात =श्रुतिशास्त्रों से सिद्ध,'ब्रम्ह के लक्षणों' को समन्वय करते हुये इस शास्त्र में वर्णित किया जायेगा। 


उदाहरणार्थ -हरिकृष्ण्दास गोयन्दका ;हनुमानदास षटशास्त्री ; शास्त्रार्थदी से -मृतिकादि पदार्थ के उपादान से घटादि वस्तुओ की रचना करने वाला कुम्भकार की भाँति ब्रम्ह को जगत का निमित्तकारण बताना तो युक्ति संगत है ,परंतु उसे उपादानकारण कैसे माना जा सकता है। इस पर कहते है कि इस विचित्र जगत का निमित्तकारण जैसे परब्रम्ह परमेश्वर है ,वैसे ही वह उपादान कारण भी है। क्योकि वह इस जगत में पूर्णतया व्याप्त है ,इसका अणुमात्र भी परमेश्वर से शून्य नहीं है। ''श्री मदभगवत गीता 10,31, में भगवान ने कहा है कि 'चर या अचर,जड़ या चेतन,ऐसा कोई प्राणी या भूतसमुदाय नहीं है,जो मुझसे नहीं है'। गीता 9,4 से 'यह सम्पूर्ण जगत मुझसे व्याप्त है ''। यही बात उपनिषदों ने भी स्थान -स्थान पर दोहराई है,कि ईशा0 1 में 'उस परब्रम्ह परमेश्वर से यह समस्त जगत व्याप्त है ''। इस प्रकार से श्रुति और स्मृति शास्त्रों में परस्पर समन्वय किया हुआ मिलता  है; ''संशय =कर्मबोधक वेदज्ञान की तुल्यता और प्रकरण के विभिन्न भेदों से संशय होता है ,कि वेदान्तकर्म' में अपेक्षित देवो और उपासनाओं का बोधक है ;या स्वतंत्र मोक्षफल के लिए ब्रम्ह के स्वरूप मात्र का बोधक है। पूर्वपक्ष=कर्मानुष्ठान में उपयोगी होने से,कर्ता देवो का ही बोधक है। सिद्धांत =भिन्न प्रकरण होने पर भी ब्रहाबोधार्थक़ तातपर्य निश्चय के हेतु उपक्रमादि षडलिंग कर्मो से भी वेदान्त ब्रम्ह का ही बोध होता है।  ब्रम्हबोध से ही,अज्ञानजन्य जन्मादि रूप अनर्थ की निवृत्तिरूप फल होता है। यहाँ पर कर्मानुष्ठान से क्या मोक्षफल प्राप्त होगा। अर्थात कर्मानुष्ठान से मोक्षरुपी फल प्राप्त नहीं होता है,मोक्षरुपी फल तो ब्रम्हज्ञान होने पर ही प्राप्त होता है। 


दूसरा संशय =वेदान्त उपासना का विधान करना चाहता है ,या ब्रम्ह में ही तातपर्य वाला है। पूर्वपक्ष =यह शास्त्र होने से,कर्मकाण्ड के समान उपासना का विधायक है और श्रवण के बाद मनन आदि क्रिया का भी वेदान्त में कथन है ,तो इससे मनन आदि का भी विधायक होगा। सिद्धांत =कर्ता के अधीन क्रिया में विधि होती है, कर्ता के अनधिन जो 'वस्तु तंत्र ज्ञान' है ,उसमें विधि नहीं होती है। उपदेशक वचनों को भी शास्त्र कहा जाता है;विधि मात्र को ही शास्त्र कहा जायेगा ,ऐसा नहीं है। ज्ञान के लिए ही पहले मनन आदि करने का विधान है। इससे सिद्ध होता है कि 'वेदान्त' ब्रम्ह में ही तात्पर्य रखते है''। अर्थात सद्कर्म के अनुष्ठानों से श्रेष्ठ ज्ञान कि प्राप्ति होती है ,इसलिए वेदों में में अनुष्ठान सद्कर्म परक है। श्रेष्ठ ज्ञान से ही ब्रम्हविद्या का अनुष्ठान सम्भव होने से ही वेदों में ,कर्म विधियाँ बतायी है। 


संबंध -शास्त्रादि के  कथनों को परस्पर समन्वय से ब्रम्ह लक्षणों को सिद्ध करना बताते हुए ,सर्व समन्वय ब्रम्ह  प्रतिपादन करते हैं। 


पूर्वसूत्रसारांश -परमेश्वर को जानने में, सभी सद्ग्रन्थ एवं श्रुतिशात्र सहायक है , यह शास्त्र विशेष रूप से ब्रम्हविद्या का प्रकाशक होगा और इसके अध्ययन से ब्रम्हात्मत्व का भली -भांत बोध होगा। अर्थात इस ग्रंथ  अध्ययन-मनन और चिंतन करने से सभी प्रकार के उपासनाओं, सभी तीर्थो का सेवन ,सम्पूर्ण ज्ञान तथा भक्ति की प्राप्ति उनका फल एवं सर्व पापों का विनाश आदि परिणाम प्राप्त होंगे। 


विचारार्थ- शास्त्र वर्णित 'ब्रम्हात्मज्ञान' के उल्लेखों का परस्पर समन्वय हेतु के लिए विचार किया जायेगा। 


भावार्थ -माता -पिता, पति-गुरु और स्वामी -राजा आदि में स्थापित देवत्व से तथा अनन्तकोटि ब्रम्हांडनायक के ब्रम्हत्व से एवं उनके मध्य स्थापित देव प्रतिक स्वरूपों का ब्रम्हविद्यांतर्गत श्रुति शास्त्रानुसार समन्वय। सामान्य दर्शन पूजन    भजनादि से स्थिरप्रज्ञासमाधि तक सभी उपासनाओं का श्रुति शास्त्रानुसार समन्वय। परम् पवित्र तीर्थादि प्रतीकों से अपवित्र पदार्थो तक उनके मध्य समस्त अवतरित परमात्म शक्तियो का समन्वय। कोटि -कोटि जन्म के योग -भोग से मोक्ष प्राप्ति तक सभी गतियों का ब्रम्हविद्यानतर्गत समन्वय। सदेहमोक्ष से ,ब्रहालोक में मोक्ष तक तथा उनके मध्य में प्राप्ति तक तथा उनके मध्य में प्राप्त मोक्ष का परस्पर समन्वय। सामान्य जीवकोपार्जन कुटुम्बादि भरण -पोषण से ,वर्णाश्रमादि कर्मानुष्ठान और उनके मध्य के सभी कर्मानुष्ठानों का ब्रम्ह विद्यांतर्गत समन्वय। निकृष्टतम विचार -भावादि से जपादि से परमशुद्ध -बुद्ध होकर उपासना कर्म के भावों का और उनके मध्य सभी भवान्तर्गत उपासनाओं का समन्वय। बौद्ध ,जैन ,ईसाई ,इस्लाम ,सिक्ख आदि पंथ-सम्प्रदाय से वैदिकसनातन आत्मसाधना विज्ञान तक और उनके मध्य सभी उपासना पद्धतियों का ब्रम्हविद्यांतर्गत समन्वय। अतः इस ग्रन्थ में सभी का ब्रम्ह में समन्वय प्रस्तुत होने का सकेंत देती है ;इस प्रकार से परब्रम्ह में उतपत्ति ,पालन ,लयात्मक संहार के बाद उसका चौथा लक्षण 'सर्वसमन्वय विज्ञान ' वाला सिद्ध होता है।  


 


शेष आगे।------------------