उत्तर मीमांसा ........ ।। 6 ईक्षत्यधिकरणम 6 ।।

गौणश्र्चेन्नात्मशब्दात ।। 1. 1. 6 ।। गौणः =जङ प्रथम प्रकृतिमें में ईक्षणवृति गौणरूप से होगा ;चेत न =तो ऐसा भी नहीं है ;आत्मशब्दात =क्योंकि छा 0  6 ,14 ,3 ;के श्रुती में  आत्मा शब्द का प्रयोग किया गया है ;इसलिए चेतन ही जगत का कारण है।


उदाहरणार्थ -छन्दो 0 6 ,2 ,3 ,6 3 2 ;6 ,14 ,3 ;सत्यानन्द सरस्वती ; शास्त्रर्थादि से परब्रहा के ईक्षण से तेजोतप्ति हुई और वही तेज में स्थित होकर उस देव ने ईक्षण कर के जल की उतपत्ति की ''।  अर्थात तेज में स्थित ब्रम्ह के अंश भुत देव ने ईक्षण किया इसी प्रकार क्रमशः ;अन्य सभी महाभूत एवं पदार्थो  में स्थित देव ही इक्षणकर्ता है ,न कि वे जङभूत पदार्थ ईक्षण करते है। उस सतनाम वाले देवता ब्रहा ,ने इक्षण किया कि अब मै जीवात्मा के रूप से इन तीनों देवता [तेज ,जल और अन्न ]में प्रवेश करके,नाम -रूप की अभिव्यकित करू ;यह श्रूति भी पूर्वोक्त कथन को ही स्पस्ट करती है। आगे आरुणि अपने पुत्र श्वेतकेतु , से कहते है जो यह सतरूप है वह अतिसूक्ष्म है ,उसके रूप से ही यह सब है ,वह सत्य है,वह आत्मा है और वही तू है। ' अर्थात सभी प्राणिओ में वह ब्रम्ह उनमें स्थित चेतना का स्वरूप है और वही चेतना ,प्राणरूप होकर वह मन आदि इन्द्रियों की शक्ति है तथा उसकी के द्वारा चिंतन -मनन -ईक्षण आदि का कार्य होते है चेतना न होने पर यह जङशरीर ,कुछ भी नहीं कर सकता है। चेतना कर्तृक ईछण में मुख्यत्व का साधक जैसे आत्म शब्द है ;वैसे ही तेज जल और अन्न कर्तक ईछण में नहीं है,अतः तीनो का ईक्षण गौड़ है या ईक्षतृत्व लक्षणावृत्ति से उस,अधिष्ठान (परब्रम्ह)से अपेक्षा है। इसलिये 'चेतन ब्रम्हात्म' ही जगत्कारण है ,जड़प्रधान प्रकृति नहीं। ''अर्थात जड़प्रधान  प्रकृति में गौणरूप से भी ईछण करना सम्भव नहीं है ,इसलिए एकमात्र ईछणकर्ता परब्रहा परमेश्वर ही सिद्ध होता है। 


पूर्वसूत्रसारांश -पूर्व में जब कुछ भी नहीं था तो उस समय सदरूप ब्रम्ह ने असत आसार का भेदन करते हुए सार - सत को प्रकट किया तभी ब्रम्ह में  सर्वप्रथम ईक्षणत्व का प्रादुर्भाव होता है। उस अनादि ईक्षणत्व से प्राण और श्रद्धा उतपन्न होते है,उसी से क्रमशः आकाशादि पंच भूतो की उतपत्ति होती है। इस प्रकार से परमेश्वर के अनादि ईक्षणत्व के प्रभाव से ही समस्त संसार की यथोचित सृष्टि होती है।


विचारार्थ -जड़प्रधानप्रगति में गौड़ रूप से ईक्षण करने का भाव विद्यमान है,अथवा नहीं है,इस बिंदु पर विचार किया गया है। 


भावार्थ -जड़प्रधानप्रगति को जड़ ब्रम्हात्मतत्व को चेतन कहा गया है,ऐसा श्रुति में स्पष्ट है। क्योकि जब तक शरीर में चेतना होती है तभी तक,चिन्तन -मनन -ईक्षण आदि क्रिया उससे सम्पादित होते है,जैसे ही शरीर की चेतना विहीन होता है,वैसे ही उन क्रियाओ का लोप हो जाता है। जड़ पदार्थो में होने वाली परिवर्तन ,क्रिया,गति और रसायनिक अभिक्रिया आदि से ,जो ईक्षण का गौड़ भाव दिखाई देता है,वह भी क्रिया उनमे परमात्मतत्व भीतर प्रविष्ट होने के कारण से होती है। यदि जड़ प्रगति में गौड़ रूप से ईक्षण करना सम्भव होता तो परमेश्वर को ब्रमाण्डो की रचना करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। क्योकि ईक्षण के विद्यमान होते ही चेतना का प्रादुर्भाव हो जाता है,जैसे संसार में किसी मनुष्य को इच्छा करते ही,उस मनुष्य में इच्छा के प्रति कामना,कर्म,भाव,गति,और प्रेरणा आदि के रूप में चेतनादि का संचार होने लगता है तथा इच्छुक ना रहने पर वह मनुष्य संसार के समस्त कर्तव्यों एवं भोगो से इतिश्री पाने की चेष्टा करता है। तब उसके जीवन का आधार,परमत्व प्राप्ति की इच्छा को लेकर होती है,उसी के लिए ही,समस्त कर्म और चेष्टाएँ करता है फिर भी यदि बिना इच्छा के उस कर्म को करता है,तो वह स्वभागवत और कर्मो से उतपन्न परिणामभूत फल से होता है। जैसे मादकपदार्थ के व्यसनी में,उस पदार्थ के सेवन की इच्छा न होने पर भी,उसके सहज ही उपलब्ध होने पर स्वभाववश उसका सेवन, उसके अभ्यास  कारण  करता है।  उसी प्रकार से बंदीगृह को प्राप्त कैदी को कर्मभूत परिणाम से प्राप्त दण्ड फलस्वरूप इच्छा के न होते हुए कर्म करना पड़ता है। अर्थात अन्य की बलवती इच्छा के कारणों से, उसके प्रभाव  भी कर्म और योग-भोग की स्थिति प्राप्त होती है। जैसे शिल्पकार की इच्छा के कारण से पत्थर खण्ड में चटकना उसके मूर्तिस्वरूप में आना उपासको की इच्छा  से मूर्ति में 'प्राणप्रतिष्ठा' आदि कर्म होना। पूजा करने वालो की इच्छा से मूर्ति में श्रगारादि अर्चनाएं होना ,इत्यादि कर्म होते है। वैसे ही स्वामी की इच्छा बलवती होती है,जिसके आधीन हो कर दास को समस्त कर्म करने पड़ते है। उसी प्रकार से ब्रम्ह की इच्छा अत्यंत बलवान है,उसी के आधीन सम्पूर्ण चराचरजगत गतिशील है। अनन्तकाल से ब्रम्ह की इच्छा से ही लोक सृष्टि और प्रलय का कर्म बना हुआ है,कही से भी जड़ प्रगति में ईक्षण करना संभव होता तो लोग स्वयं ही ब्रम्हस्वरूप हो कर चैतन्य हो जाते। अतः यह सिद्ध होता है कि अनादि ईक्षणत्व से ही सबमें इच्छा शक्ति का प्रवेश हुआ है,वह मूल ईक्षणकर्ता एकमात्र परमब्रम्ह परमेश्वर ही है।


 


 


 


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