तन्निष्ठस्य =उस परमात्मा में स्थित होने पर ही ;मोक्षोपदेशात =मोक्ष की प्राप्ति होती है ; क्योकि 'छान्दो0 6, 14, 2;' के इस श्रुति में ऐसा कथन है।
उदाहरणार्थ - छान्दो 0 6, 14, 2 ;तेति0 2,7,3 ;शास्त्राथारदि से - '' आत्मयोगसम्पन्न ब्रम्हज्ञपुरुष ही,परब्रम्ह परमेश्वर को जानता है, उसके लिए मोक्ष उतना ही विलम्ब है, जब तक वह शरीर के भाव से अलग नहीं होता है, वह देहत्याग कर के उस 'परमात्मा में लय' को प्राप्त हो जाता है ''। परमब्रम्ह परमेश्वर ही 'आत्मचेतना से सम्पन्न ' ज्ञानियों के लिए 'लय का स्थान' है ;''परब्रम्हपरमेश्वर को पाने की इच्छा रखने वाला जीव, जब निराधार-निराकर और देखने तथा सुनने में भी आने वाला 'परब्रम्हपरमेश्वर के प्राप्ति का लाभ ' करता है ;वह उसी समय मोक्ष को प्राप्त हो जाता है ''। इस प्रकार से परमत्व प्राप्ति की इच्छा से वशीभूत होकर जीव जब ब्रम्हविद्या की उपासना करता है,तो वह जीव इच्छा भूत मुख्यप्राण के द्वारा परब्रम्ह परमात्मा से संयुक्त हो जाता है।
पूर्वसूत्रसारांश - जड़प्रधानप्रकृति 'अचेतन ' होने से जगतोतपत्ति आदि क्रिया में गौड़ रूप से भी उसमे ईक्षण करना संभव नहीं है ; क्योकि ईक्षण क्रिया चेतना में ही सम्पादित हो सकती है। जब की परब्रम्ह चेतना का मूलस्रोत है,उसमे ईक्षण होने से ही वह आत्मरूप से सबमे व्याप्त होता है और सभी तत्वों में वही प्राणचेतना अनादि ईक्षणत्व से संयुक्त होकर प्रवाहित होता है। इसलिए जड़प्रकृति में भी उसकी चेतना से, उसमे भी चेतनता परिलक्षित होती है। इसलिए परमेश्वर से भिन्न जड़प्रकृति की परिकल्पना किये जाने पर,जड़प्रकृति में गौड़रूप से भी ईक्षण की क्रिया सम्पादित नहीं हो सकती है।
विचारार्थ- मोक्ष भावान्तर्गत ईक्षणक्रिया में ब्रम्ह और 'जड़प्रकृति' की भूमिका पर विचार किया जाता है।
भावार्थ - परब्रम्हपरमेश्वर को 'परमचैतन्यप्रकृति' प्रधान प्रकृति को 'जड़प्रकृति' और प्राणवान शरीरों को जड़-चेतना से,'संयुक्त प्रकृति' वाला बताया गया है। प्राणियों के देह त्याग के पश्चात् पंचतत्वों से निर्मित 'शरीर'अपने तत्वों में जाकर लय हो जाता है,जल,जलतत्व में,;वायु, वायुतत्व में ;पृथ्वी, पृथ्वीतत्व में और अग्नि,अग्नितत्व में विलीन हो जाता है। उसी प्रकार से प्राण,महाप्राण में,आत्मा,परमात्मा में लीन होता है। अर्थात सभी तत्व अपने मूलस्रोत में लय को प्राप्त करते है। वैसे ही सभी धातुएँ एवं खनिज भी अपने स्वरूप में अविकृत रूप से लय को प्राप्त करते है। कोई भी पदार्थ अपने मुलपदार्थ से भिन्न पदार्थ में लय करने पर विकार को प्राप्त होते है। उसी प्रकार जीवात्मा चेतनप्रकृति का अंश होने से,उसका ब्रम्ह में ही लय होना तर्कसंगत है,अन्यथा विकृति को ही प्राप्त होगा। अन्न के अपेक्षा जल में, जल के अपेक्षा वायु में और वायु के अपेक्षा प्राणियों में,चेतना अधिक होती है तथा ब्रम्ह 'पूर्णचैतन्यस्वरूप' है,इस दृष्टि से भी जीव का लय 'ईश्वर' में ही बताना तर्क संगत है। इसलिए मोक्षमार्गी ज्ञानीमनुष्य, मोक्ष के लिए एकमात्र परमेश्वर की ही प्राप्ति का ईक्षण करता है,उसकी ही इच्छाशक्ति, प्राणतत्व से संयुक्त होकर देह त्याग के पश्चात उसका प्राण,जीवात्मा से संयुक्त होकर परमतत्व में लीन होता है। अतः मोक्ष प्राप्ति के लिए शास्त्रों ने,ब्रम्ह में एकनिष्ठ होने की इच्छा करने का उपदेश दिया है। इस दृष्टि से भी परमेश्वर 'मोक्ष का स्थान सिद्ध' होने में,उसका चेतनतत्त्व ही कारण है और यह ईक्षणक्रिया में ही सम्भव है। इस प्रकार से भी मूल ईक्षणकर्ता और सम्पूर्ण इच्छा शक्तिसम्पन्न एकमात्र ब्रम्ह है, ऐसा सिद्ध होता है।
शेष आगे। ........ ........