उत्तर मीमांसा। ..... ...... ।। 8 हेयत्वावचनात 8।।

हेयत्वावचनात =जड़ता त्यागने योग्य और चेतना धारण करने योग्य बताये जाने के कारण से; च = भी 'आत्मा' शब्द प्रकृति का वाचक नहीं है। 


उदाहरणार्थ -हरिकृष्णदास गोयन्दका; हनुमानदास षट्शास्त्री; शास्त्राथारदि  से -"आत्मा शब्द प्रकृति का वाचक नहीं हो सकता ,इसका कारण बतलाते है यदि ''आत्मा 'शब्द यहाँ गौड़वृति से प्रकृति का वाचक होता तो आगे चलकर उसे त्यागने के लिए कहा जाता और मुख्यात्मा में निष्ठा करने का उपदेश दिया जाता; किन्तु ऐसा कोई वचन उपलब्ध नहीं होता है।जिसको जगत का कारण बताया गया है, उसी में निष्ठा करने का उपदेश दिया गया है, अतः परब्रम्ह परमात्मा ही आत्मा शब्द वाच्य है और वही इस जगत का निमित एवं उपादान कारण है''। जैसे मिट्टी उपादान कारण है और कुम्भकार घट के निर्माण में निमित्तकारण है ; वैसे ही ब्रम्ह जगतोतपति में अभिन्न निमितोपदान कारण कहा गया है। ''मोक्ष के लिए और 'एक सतज्ञान' से 'सर्ववस्तुज्ञान' के लिए 'सत्यात्मब्रम्ह' का उपदेश किया गया है। उसका त्याग कही नहीं कहा गया है,इससे सिद्ध होता है मुख्यात्मा ब्रम्ह का ही उपदेश है। अन्यथा ऐसा होगा कि, 'अन्नमय-प्रणम्य-मनोमय'और 'विज्ञानमयब्रम्ह' के बाद,'आन्दमय' ब्रमहोपदेश की इस श्रुति से; परमात्म तत्व का जो उपदेश हुआ; उसी के समान, यहाँ जड़प्रधान प्रकृतस्थ 'आत्मा सत' से, भिन्न मुख्य सत्यात्मा ब्रम्ह का उपदेश देना चाहिये था। उसी प्रकार से केनोपनिष्द के इस श्रुति में भी असार-स्थूल पदार्थो को नकारते हुए इस प्रकार के उपदेश दिया है,कि 'प्राकृत नेत्र से देखे गये पदार्थ समूह की उपासना,कानों से सुने जाने वाले वस्तुसमुदाय की उपसना,इत्यादि उपासनाये जो की जाती है,वह ब्रम्ह का वास्तविक स्वरूप नहीं है। क्योकि इन्द्रियों से ज्ञात समस्त वस्तुओ से परे ब्रम्हतत्व है ;ब्रम्ह यह नहीं,वह नहीं है,ऐसा कहते हुए परमात्मत्व का उपदेश किया  है''। इस प्रकार से स्पष्ट होता है कि आत्म चेतना त्यागने योग्य नहीं है,जड़प्रधान प्रकृति त्यागने योग्य है। 


पूर्वसूत्रसारांश - परब्रम्ह परमेश्वर ही सम्पूर्ण जगत में एक मात्र चेतना का स्रोत है,उसकी चेतना आत्मरूप होकर प्राणभूत से समस्त जगत में व्याप्त है।  उसी चेतना के प्रभाव से समस्त प्राणियों में चेष्टा और जड़पदार्थो में आवणिक तथा विकिरण आदि की क्रिया एवं गति है। उसी प्रकार से परमात्मा का अनादि ईक्षणत्व भी चराचर जगत में व्याप्त है ;क्योकि उक्त समस्त क्रियाये ब्रम्ह की इच्छा से ही सम्पादित होता है। इसलिए ब्रम्ह प्राप्ति की इच्छा से, की गयी ब्रम्हविद्या की उपासना का, अनादि ईक्षणत्व से जीवात्मा की इच्छा भाव का योग होता है,जिसके फलस्वरूप जीवात्मा को मोक्ष की प्राप्ति होती है। 


विचारार्थ -ब्रम्ह 'सर्वव्यापी ' है और प्रकृति भी ब्रम्हमय है,ऐसे में निवृति तथा प्रवृति का विचार कैसे किया जायेगा। 


भावार्थ - जड़प्रधान प्रकृति के गुण -दोष,सौन्दर्य से, जीव का मन आसक्त होकर लोभ-मोह,से युक्त हो जाता है और जड़प्रकृति को सत्य मान लेता है। जिससे जीव निरन्तर जड़ता की वृद्धि करते हुए वह ज्ञानहीन होकर अचेतनजड़ता की स्थिति को प्राप्त करता है। जब की प्रकृतिगत सौन्दर्य,रस और गुण-दोष आदि में परब्रम्ह परमात्मा स्वेच्छा से स्वयं,विद्यमान होकर परिलिक्षित हो रहा है। ऐसे में भी जीव सौन्दर्यादि रसो में ब्रम्ह के रसमयता का ज्ञान न कर के जड़प्रकृति के भाव को प्राप्त करके अनेक कष्टों को ही प्राप्त करता है। वही 'ज्ञानी-भक्त जीव ' सबमे परमेश्वर के गुणों का बोध करके आनन्दित रहता है और निरंतर ब्रम्ह का चिंतन-मनन उपासनादि करते हुए आत्मज्ञान के भाव को प्राप्त करता है। जिससे चेतनता में निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होने से,वह मोक्ष को प्राप्त करता है। इस प्रकार से यह सिद्ध होता है कि जड़प्रधान प्रकृति के प्रति उतपन्न आसक्ति और लोभ-मोह से सदैव निवृत होते रहना चाहिए तथा ब्रम्हतमज्ञान एवं आनन्द में सदैव प्रवृत होना चाहिए। अतएव परमात्मा की इच्छा का अनुभव करते हुए एकमात्र परमात्म प्राप्ति का ही इच्छा करे।  उस 'परमात्म इच्छा' का भाव, जीवो के प्रति मात्र यही है,कि सभी प्राणी आनन्द में रमण करते हुए अपने लिए निर्धारित योग -भोग -कर्तव्य को सुखपूर्वक,बिना आसक्त हुए करते रहे और मोक्ष को प्राप्त करे। 


 


 


 


 


                           शेष आगे . . . . . . . . . .  . . . . . . . . . . . .  .. . .