उत्तर मीमांसा ........ ।। 9 स्वाप्ययात 9।।

स्वाप्ययात।।  सुषुप्ति काल में जीवात्मा में इन्द्रिय प्राणचेतना एकत्रित होकर सत को प्रकाशित करता है,जिससे ह्रदयस्थ आत्मचेतना,ब्रम्हतम चेतना से सयुंक्त होती है। 


उदाहरणार्थ - छान्दो 0 6,8,1;8,3,3; वृह0 4,3,21 शास्त्राथारदि से ''जिस सुषुप्ति अवस्था में पुरुष 'स्वपिति',ऐसा कहा जाता है, उस समय यह सत से सम्पन्न हो जाता है''। स्वपिति अर्थात 'स्व' स्वयं को और 'अपित' माने प्राप्त होना। शयनकाल में सुषुप्ति अवस्था को प्राप्त होने पर पुरुष,अपनी मूल प्रकृति गत आत्मा में स्थित होता है। ''वह आत्मा ह्रदय में है,'ह्रदि आयम' इसका निरुक्त है ;इसी से यह 'ह्रदय' है ''। ह्रदयस्थ मूलप्रकृति के आत्मभाव को प्राप्त जीवात्मा,उसी समय तत्क्षण ब्रम्हतम चेतना से संयुक्त होता है, तब वह पुरुष ''प्रज्ञात्मा से ऐक्य को प्राप्त पुरुष को न कुछ उसे बाहर का विषय ज्ञात होता है और न भीतर का,उस समय पुरुष आप्तकाम,आत्मकाम,अकाम और शोक से शून्य होता है''। किन्तु जैसे ही इन्द्रियाँ वातावरण के प्रभाव से चेष्टा में प्रवृत होती है,उसी समय तत्क्षण,यह पुरुष,इन्द्रियों से संबंधित स्मृति के भावानुसार आचरण करने लगता है। 


पूर्वसूत्रसारांश - वह परमात्मा स्वेच्छा से प्रकृतिगत गुण-दोष में और रस-सौन्दर्य रूप में विद्यमान होकर परिलक्षित हो रहा है। अज्ञानी मनुष्य लोभग्रस्तता से उस सौन्दर्य में आसक्त होकर जड़ता की ओर गमन करता है,क्योकि उसे उसमें जड़प्रकृति का ही बोध होता है। वही ज्ञानी मनुष्य प्रकृतिगत सौन्दर्य और माधुर्य में परमेश्वर की चेतना तथा इच्छा का बोध करता है एवं आनन्दित होता है। अतएव परमात्म इच्छानुभव करते हुए जीव को मात्र परमात्म गति की ही इच्छा करनी चाहिए। उस परमात्मा की  इच्छा जीवो के प्रति इस प्रकार से है,कि सभी प्राणी आनन्द में रमण करते हुए,'योग-भोग-कर्तव्यदि'को धर्मपूर्वक-सुखपूर्वक और बिना आसक्त हुए करते रहे तथा मोक्ष को प्राप्त करे। 


विचारार्थ -सुषुप्तावस्था में जो पुरुष सतसम्पन्न होता है, वह जड़प्रधान की स्थिति है अथवा आत्मस्थिति है। 


भावार्थ - जब पुरुष गाढ़निद्रा में सुषुप्तावस्था में होता है,तब उसके समस्त इन्द्रियों की चेष्टाएँ शून्यवत होती है।  जिससे शरीर के इन्द्रियों का प्राण, मुख्यप्राण में गति करती है और वह प्राणचेतना,ह्रदय में उसके मूलप्रकृति आत्मा में केन्द्रिभूत होकर सत को प्रकाशित करती है। जिससे जीवात्मा को 'ब्रम्हचेतना' से योग प्राप्त होता है। सत और चेतना तथा आत्मा ये तीनो में से जड़प्रकृति का वाचक कोई नहीं है,क्योकि ये तीनो ही ब्रम्ह के वाचक है। इसलिए वहाँ जीव के आत्मभाव का स्वरूप सिद्ध होता है। उस स्थिति में भी वहाँ जैसे ही जीव की स्थूल इन्द्रियाँ चेष्टावान होती है,वैसे ही तत्क्षण वह पुरुष आत्मभावानुभव से रहित होकर इन्द्रियों के भावों की स्मृतियों से युक्त हो जाता है। क्योकि भावेच्छाएँ प्राण से संयुक्त होती है और इच्छाएँ प्राण तथा प्राण इच्छाओ का अनुकरण करती है। उसी अनुकरणत्व से मूलप्रकृति स्वभाव में 'प्राण 'ह्रदयस्थ  होकर आत्मा को प्रकाशित करता रहता है। जब जीव की स्वभाविक इच्छाएँ,अनादि ईक्षण से योग प्राप्त कर,इन्द्रिगत स्मृति आदि और इच्छाएँ उसमे विलीन हो जाती है,तब उस समय जीवात्मा की आत्मचेतना,ब्रम्हचेतना से संयुक्त होकर असीम आनन्द को प्राप्त करने लगता है। किसी कारणवश वातावरणीय प्रकृति के प्रभाव से इन्द्रियों में क्षोभ होने पर इन्द्रियप्राण, मुख्यप्राण से अलग होकर स्वाश्य इन्द्रियों में पहुँच जाती है। स्वाश्य में स्थित इन्द्रियप्राण अन्य सभी प्राणो का आवाहन करती है,जिससे सभी प्राण एक दूसरे की इच्छाओं में आबद्ध होने के कारण अपने अपने स्थानों को प्राप्त हो जाती है और वे इन्द्रियाँ अपने आशयों में प्रविष्ट होने पर,वहाँ की प्रकृति तथा स्मृति के अनुसार चेष्टाओं में प्रवृत होने लगती है। इस प्रकरण से यह सिद्ध होता है कि 'अनादि ईक्षणतव' जो सम्पूर्ण जगत में व्याप्त है,उसी आत्मत्व से सुषुप्तावस्था में जीव का योग होता है। 


 


 


                             शेष आगे।  . . . . . . . .  . . . . .  . . . . . . .