उत्तर मीमांसा के व्याख्याकार का मत - ब्रम्ह सूत्र का सरलीकरण न होने से वैदिक सनातन दर्शन का क्षरण हुआ

वैद्य मंगला प्रसाद त्रिपाठी विंध्य आयुर्वेद भवन बाजीराव कटरा मीरजापुर द्वारा सनातन धर्म को बल प्रदान करने हेतु ब्रम्ह सूत्र (वेदान्त दर्शन )की व्याख्या सरल भाषा में उत्तर मीमांसा लघु पुस्तक प्रकाशित किया है। 


इनका यह मानना है कि ब्रम्ह सूत्र सरल भाषा में न होने से आमजन इससे लाभ लेने से वंचित रह गए। उनकी लघु पुस्तिका सनातन धर्म प्रेमियों को ज्ञान प्रदान करेगी प्रस्तुत है पुस्तक की भूमिका। साथ क्रमशः अंग :-


परमात्म तत्व के विषय पर कोटि-कोटि विद्वानों ने शोध किया है और इस पर करोड़ो  ग्रन्थ भी लिखे जा चुके है,फिर भी  ब्रम्हतत्व ज्ञात हो चूका है ,ऐसा नहीं कहा जा सकता है। वेद भी 'नेति -नेति '(इतना ही नहीं )यह कहकर शान्त हो जाता है ,ऐसे में यदि मैं कहुँ की मैं उसकी व्याख्या कर सकता हूँ ,तो निश्चय ही मेरी घोर मूर्खता और धृष्टता होगी।  मैं अपने जीवन काल में अनेकों शास्त्र ,वैदिक साहित्य ,अन्यान्य पंथ के सद्ग्रन्थ और कुरान ,बाइबिल ,बौद्ध दर्शन तथा जैन दर्शन पर भी मैंने अध्यन किया किन्तु सम्पूर्ण संशय का समाधान नहीं हो पाया। इसी काल में सत्यानन्द सरस्वती की ब्रम्हसूत्र  शांकरभाष्य की टीका प्राप्त हुई और उसका अध्ययन किया।भाषा की किलष्टता और लेखन शैली की विचित्रता के कारणों से उसे समझना अत्यन्त  कठिन लगा ,इसलिए मैंने ब्रम्हासूत्र की अन्य टीकायें मँगायी और उनका अध्ययन किया किन्तु वे भी ब्रम्हसूत्र को समझाना सरल नहीं कर पाये। इसलिये ब्रम्हसूत्र की व्याख्याओं में वर्णित उपनिषदों को भी पढ़ा ,किन्तु वे भी ब्रम्हसूत्र को समझाकर,उसके रहस्य का पूर्ण विवेचना के साथ क्रम का वर्णन नहीं दे पाये। अतः मैंने स्वयं ब्रम्हसूत्र पर टीका लिखने का विचार किया और लेखन भाषा की शैली को सरल -सुबोध बनाने के लिये कठिन परिश्रम किया। ब्रम्हसूत्र के अध्ययन से ज्ञात हुआ कि परमात्मा तत्व और अध्यात्म संबंधी विषय की सबसे अधिक वैज्ञानिक ग्रन्थ यही है इसके इतिहास को जानने के बाद यह समझ में आया की वैदिक धर्म की सबसे अधिक प्रचलित ग्रन्थ भी यही था ,इस ग्रन्थ को उत्तरमीमांसा ,वेदान्त दर्शन,उपनिषद्सार और वेदशास्त्र इत्यादि नामों से वर्णित किया गया है। 


      भारत भूमि पर पाँचसौ वर्ष पूर्व 'ज्ञान और शिक्षा 'में सबसे अधिक महत्वपूर्ण और प्रचलित साहित्य के रूप में 'ब्रम्हसूत्र 'को ही जाना जाता था। विदेशी भाषाओ के प्रभाव से संस्कृत  माध्यम के दुर्बल हो जाने से इस ग्रन्थ का प्रचलन कम होता गया। कालान्तर में तुलसीकृत रामायण की रचना हुई,उसकी भाषा सरल -सुबोध होने से भारतीय जन -मानस में इसका प्रचलन अधिक हो गया।  इसके बाद संस्कृत भाषा को जानने और समझने वालो की संख्या में निरन्तर कमी होती गयी तथा अवधी ,व्रज ,ग्रामीण बोली एवं उर्दू आदि भाषाओ का प्रभाव बढ़ गया था। उन साहित्यो की संख्या भी बढ़ी और उनकी भाषा सरल होने से प्रचलन में अधिक हो गए। इसके बाद गीता का भी सभी भाषाओ में अनुवाद हो जाने पर अनेको सरल टीकाये उपलब्ध हो गयी और बालगंगाधर तिलक ,मालवीय और महात्मा गाँधी आदि महापुरुषों दवारा महत्व दिए जाने से गीता घर -घर प्रचलित हो गया। लेकिन ब्रम्हसूत्र का सामान्य जन भाषा के अनुरूप सरलीकरण न किये जाने से वैदिक सनातन दर्शन का क्षरण हुआ। जिसके कारण से वर्ग ,पंथ और जाती रूढ़ होकर भ्राँति पैदा करने लगे। 


एक मात्र यही ग्रन्थ है,जिसके द्वारा सनातनधर्म और परमात्मा तत्व के विषय के सम्पूर्ण संशयो का समाधान कर सकती है। क्योकि वैदिक सनातन दर्शन का मूलग्रन्थ ब्रम्हसूत्र ही था। ब्रम्हसूत्र से अधिक पान्थिक धर्म से निरपेक्ष साहित्य हो ही नहीं सकता और इसके ज्ञान विज्ञानं से सभी पंथो में ससमन्वय होना भी संभव है। ब्रम्हसूत्र का एक सूत्र भी यदि भली भाँति अध्ययन कर लिया जाय तो जीवन का सम्पूर्ण कल्याण होना सम्भव है,यह एक प्रकार से मोक्ष का शास्त्र है। प्रस्तुत टीका में ब्रम्हसूत्र के ,एकभाग मात्र की टीका है;और शेष पन्द्रह भागो का प्रकाशन एक साथ कराया जायेगा। 


                                             ब्रम्हसूत्र (वेदान्त दर्शन )


                                               | प्रथमोअध्यायः।


                                           ।। प्रथमः पाद।। 


                                        ।। 1 जिज्ञासाधिकरणम 1 ।। 


अथातो ब्रम्हजिज्ञासा  ।। 1. 1 . 1 ।। अथ =अब ; अतः =यहाँ  से ; ब्रम्ह जिज्ञासा =ब्रम्ह विषयक विचारों को आरम्भ किया  जाता है। 


उदाहरणार्थ-मुण्ड0 2,2 ,8 ; तैत्ति0 2 ,1 ;शास्त्राथारदि से -''उस ब्रम्ह जान लेने से जीव की 'हृदयग्रन्थि 'खुल जाती है ;सम्पूर्ण संशय कट जाते है और संसारगत दुःख के बंधनो से मुक्त होकर परमानन्द को प्राप्त होता है ''।  इसलिए ब्रम्ह की जिज्ञासा अवश्य करनी चाहिए और ''ब्रम्हज्ञानी मोक्षस्वरूप परब्रम्ह को प्राप्त होता है ''। अतएव ब्रम्ह की जिज्ञासा मोक्ष के लिए भी करते रहना चाहिए। 


पूर्वसूत्रसारांश -इस ग्रन्थ के अंतिम अध्याय के ,अंतिम सूत्र में ,बताया गया है ,कि ब्रम्ह लोक को  प्राप्त जीवात्मा पुनः इस दुःख तप्त संसार सागर में नहीं लौटता ,वह अजर-अमर और सर्व कामनाओ  भोग कर ;उससे निवृत होता  है ,जिसे मोक्ष की प्राप्ति  होती है। 


विचारार्थ -ब्रम्ह  जिज्ञासा क्यों करनी चाहिए ,इस पर  विचार किया जाता है। 


भावार्थ -संसारगत प्राणी ,सांसारिकता के कारण अनेक दुःखों को  प्राप्त करता है ;जिससे निवृति हेतु ब्रम्ह की जिज्ञासा करनी चाहिए। अब दुःखों का वर्णन करते हैं ;जिनके चार प्रकार कहे गए है 


1. आधिभौतिक -अन्य प्राणियों और भूतो के असाम्यता तथा वित्तादि एवं व्यवहारिक कारणों से उत्पन्न दुःख।


2 आधिदैविक -ग्रह ,पिशाच ,प्रेत और पापादि के कारणों से उत्पन्न दुःख।


3. आधिदैहिक -त्रिदोष और धातुओं की विषमता से उत्पन्न व्याधिगत दुःख।


4. आध्यात्मिक -चित्त ,विवेक और स्वभाव की विकृति तथा अज्ञानता से उत्पन्न दुःख।


            इन दुःखों से निवृत्ति का सबसे सरल और पूर्ण उपाय  है ,की विषमता का निवारण तथा समता की प्राप्ति से है ,सभी प्रकार के विषमता निवृत्ति एवं समता की प्राप्ति ,बुद्धि समता प्राप्त करने मात्र से होती है। मन बुद्धि की 'समता'षट विकारो (काम क्रोध ,लोभ ,मोह राग ,देष )और मदाभिमान से उत्पन्न अहंकार के निवृत्ति से प्राप्त होती है। इन समस्त अज्ञानजनित विकारो की निवृत्ति और समबुद्धि की प्राप्ति ब्रम्हभाव में रमण करने से सहजरूप में प्राप्त होती है। ब्रम्हज्ञान से ही ब्रम्हभाव  प्राप्ति होती है और ब्रम्हभाव के लिए ब्रम्ह की जिज्ञासा रखनी आवशयक है। 


     ब्रम्हजिज्ञासा रखने का दूसरा महत्वपूर्ण कारण =चराचर जगत का सारभूत चर (चेतन )प्राणी है और समस्त प्राणियों में सारभूत श्रेष्ठाप्राणी मनुष्य है ,उन मनुष्यो में ब्रम्हज्ञ ही सार होता है। अतएव मनुष्यो में ब्रम्हविद्या का अनुष्ठान कर लेने से ,समस्त प्राणियों का कल्याण सुनिश्चित हो जाता है अतः सुविज्ञ मनुष्यों दवारा ब्रम्हविद्या के ज्ञान हेतु प्रयत्न होना चाहिए। इसलिए ब्रम्हविषयक विचार का आरम्भ करते हुए कि ब्रम्ह कौन है ,इसकी जिज्ञासा के साथ सभी ब्रम्हविषयक बातों का वर्णन करने और उसकी विवेचना के लिए ,यह ग्रन्थ प्रस्तुत किया जाता है। . . . . . . क्रमशः