उत्तर मीमांसा.....।। 10 गतिसामान्यात 10।।

श्रुतिशास्त्रों की सामान्यगति ब्रम्ह में ही ज्ञान, चेतना, इच्छा और उत्तपत्ति का मूलस्रोत बताना तथा जड़प्रधानप्रकृति का निराकरण करना है। 


उदाहरणार्थ - को0  3, 3; तैत्ति0  2, 1; छान्दो0 7, 26,1; प्रश्नो0 3, 3; मु0 उ0 2, 1, 3; शास्त्रार्थादि से ''जैसे प्रज्वलित अगिन से चिंगारियाँ, सभी दिशाओं में फैलती है, वैसे ही इस आत्मा से सभी प्राण,यथा स्थान (इन्द्रिय रूप) में प्रादुर्भूत होते है; उन इन्द्रिय प्राणो से जगत के उपकारक सूर्यादि देवता प्रकट होते है, तदनन्तर उन देवों से विषय और उनके लोक उत्तपन्न होते है''। इस प्रकार ब्रम्हात्मा से उतपन्न चेतना प्रवाह से 'सृष्टिसृजन और विकास' होता है; ''उस परब्रम्ह के आत्मा से सर्वप्रथम आकाश तत्व उतपन्न होता है,आकाश से वायु; वायु से अगनि; अगनि से जल; जल से पृथ्वी और पृथ्वी से औषधियाँ, औषधि (सर्वपोषक) तत्त्व से अन्नरस तथा अन्नरस से शरीर उत्तपन्न होता है। अन्नरस से वीर्य, वीर्य से शरीरादि इन्द्रिय और इन्द्रियप्राणो के सघनीकरण से आत्मा का दर्शन होता है। 


              आत्मा से ही पुँछ रूपी जीवन और कर्म की शृंखला तथा उसी से जीव की प्रतिष्ठा (योग) की प्राप्ति होती है। यह ब्रम्हात्मा और उससे हुए सृजन के विषय में कहा जाने वाला श्लोकार्थ है ''। इस प्रकार ब्रम्ह से, समस्त सृष्टि सृजन और कर्मो की उतपत्ति बताया गया; ''आत्मा से प्राण, आत्मा से आशा, आत्मा से स्मृति, आत्मा से आकाश, आत्मा से तेज, आत्मा से जल, आत्मा से आविर्भाव-तिरोभाव,आत्मा से अन्न, आत्मा से बल,आत्मा से विज्ञान, आत्मा से ध्यान, आत्मा से चित्त, आत्मा से संकल्प, आत्मा से मन, आत्मा से वाक, आत्मा से नाम, आत्मा से मंत्र, आत्मा से कर्म, आत्मा से ही सब हो जाता है '' इस प्रकार से श्रुति वाक्यों की गति, परमात्मा को ही उतपत्ति, इच्छा, चेतना और सभी कर्मो का मूलस्रोत बताने में है। ''यह प्राण परमात्मा से उतपन्न होता है, जिस प्रकार यह छाया,पुरुष के होने पर ही होती है, उसी प्रकार यह प्राण, परब्रम्हपरमात्मा के आश्रित है ''। अतः जगतोतपत्ति में जड़प्रधान,कहीं से भी कारण नहीं बनता है ; ''परमेश्वर से प्राणोतपत्ति और मन आदि इन्द्रिय पंचमहाभूत तथा समस्त समुदाय उत्तपन्न होते है ''। इस प्रकार से सभी तरह से परमेश्वर का ही श्रुति में प्रतिपादन होता है। 


पूर्वसूत्रसारांश - सुषुप्तावस्था में जीवात्मा की आत्मा इच्छा प्रकाशित होती है, जिससे उसकी समस्त कामनाएँ गौण हो जाती है और आत्मा चेतना प्रबल होकर ब्रम्हात्म चेतना से योग करता है। किन्तु उस स्थिति की स्मृति और उसमें स्थिरता प्राप्त नहीं हो पाता क्योकि इन्द्रियाँ चंचल होती है, जैसे ही शरीर में किसी भी प्रकार का छोभ होता है, उन इन्द्रियो का प्राण अपने स्थान की ओर गमन करने लगते है। 


विचारार्थ - सभी श्रुति वाक्यों में सृष्टिसृजन में ब्रम्हतम्तत्व को ही बताया गया है। क्या किसी स्थान में उसके अतिरिक्त सृष्टि सृजन में अन्य हेतु को उपादान या निमित्त कारण माना गया है। 


भावार्थ - सभी वेद और उपनिषद तथा गीता, मनु एवं भागवत आदि स्मृतियाँ व सभी शास्त्र 'परब्रम्ह के संकल्परूप इच्छा से ही सृष्टि का निर्माण होता है ' ऐसा बताते है। उसकी ही इच्छा से सृष्टिकर्त्ता, पालनकर्त्ता और कल्याणकर्त्ता का विभाग हुआ है, जिन्हे शास्त्रों ने उन्हें परब्रम्हपरमेश्वर के समान बताते हुए उन्हें 'कार्यब्रम्ह' कहा है। उन कार्यब्रम्ह से सभी देवताओ की उत्तपत्ति है,उन देवो से उनके विषय और लोको की स्थिति होती है।  इसलिये सृष्टि के सभी विभागों में, परब्रह्मपरमेश्वर की अनादि इच्छा को मूलकारण माना गया ; सब कुछ ब्रम्ह है इसलिए सृष्टि का उपादान कारण भी ब्रम्ह ही है। अतएव यह सिद्ध होता, जगत की सृष्टि में निमित्तकारण ब्रम्ह की इच्छा और उपादान कारण स्वयं परमात्मा है। अतः जड़ प्रधान प्रकृति या अन्य कोई भी सृष्टि -सृजन में उनको गौड़ रूप से भी गतिमान होना या इच्छा करना नहीं बताया जा सकता है।