श्रुतत्वात = सभी श्रुतियों में अनेक स्थानों पर, ब्रम्हतम चेतना को ही प्रकृति आदि का नियामक मानती है, च = इसलिये 'अनादि ईक्षणत्त्व' स्वयं में ब्रम्ह है।
उदाहरणार्थ - छा0 6, 2, 3; ऐत0 1, 1, 1; प्रश्न0 6, 3; सत्यानंद सरस्वती; शास्त्रर्थादि से - ''परब्रम्ह ईक्षण किया की मैं बहुत हो जाऊ; नाना प्रकार से उतपन्न होउँ। इस प्रकार ईक्षण कर उसने जल की रचना की। '' अर्थात यह ब्रम्हभूत अनादि ईक्षणत्त्व ही प्रत्येक तत्त्व से आगे के तत्त्व को क्रमशः करके सभी को उतपन्न करने में समर्थ है। ''इस जगत में तेज के उतपन्न होने के पहले एकमात्र परमात्मा ही था, दूसरा कोई भी चेष्टा करने वाला नहीं था, उसने लोकों की रचना करने का निश्चय लेकर इच्छापूर्वक विचार किया ''। इस प्रकार से सृजनात्मक प्रक्रिया सर्वप्रथम 'अनादितत्व' से ही प्रारम्भ होती है।
''उस परब्रम्ह परमेश्वर ने इच्छा पूर्वक विचार किया मैं जिस- जिस ब्रम्हांड की रचना करना चाहता हूँ, उसमे ऐसा कौन सा तत्व डाला जाय कि जिसके न रहने पर मैं स्वयं भी उसमे न रहुँ और जिसके रहने पर मेरी सत्ता स्पष्ट प्रतीत होती रहे ''। वह तत्व प्राणभूत ईक्षणतत्व था, जिसके इच्छा से जीवनचक्र चलता रहता है, उसकी स्थिति नहीं होने पर भी जीवन समाप्त हो जाता है। ''वह प्राण अभिमान में आकर, ऊपर की ओर स्वेच्छा से बाहर निकलने पर सब देवता विवश होकर बाहर निकलने लगे, देवो को अनादि इच्छा से बँधे होने का ज्ञान हो जाने पर वह इच्छा भूतप्राण ठहर गया, जिससे सब देवता पुनः अपने-अपने स्थिति को प्राप्त हुए''।